मैं वो हर्फ़ नहीं..मेरा पहला ख़्वाब..मेरी पहली किताब..
बचपन से पढ़ने का शौक़ था..क़िस्से,कहानियाँ,कविताएँ पढ़ती थी तो लगता था कि कैसे होते होंगे लेखक,कवि,शायर..क्या हम सब जैसे या कुछ अलग?क्या महसूस करते होंगे?क्या वही,जो काग़ज़ पर उतार देते हैं?कैसा लगता होगा जब अपना नाम,अपना तारूफ किताब के पहले पन्ने पर देखते होंगे?क्या सहज होते होंगे या थोड़े सरफिरे?आज आइना देखते हुए महसूस हुआ कि क्या मैं भी एक लेखक बन चुकी हूँ?हर घड़ी कुछ सोचते रहना,हर भाव की गहराई से समीक्षा करना,दिल–दिमाग़ में संतुलन ना बना पाना,भीड़ में अचानक अकेला हो जाना,फूल,ख़ुशबू,पेड़,पौधे,ज़मीन,ओस,आसमान,बादल,वो,तुम,मैं,और ना जाने क्या–क्या शिद्दत से काग़ज़ पर उतार देना,क्या यही निशानियाँ हैं इस ख़ूबसूरत बीमारी की,कला की,जिसकी कोई तय परिधि नहीं?
शायद अब ख़ुदको एक कवित्री/poetess कह सकती हूँ मगर ये कहूँ कि मेरी कला को मैंने एक परिधि में बाँध दिया है,ग़लत होगा..ये सिर्फ़ एक शुरुआत है..एक सफ़र की शुरुआत जिसकी कोई मंज़िल नहीं..यहाँ सिर्फ़ चलते जाना है..बहते जाना है,नदी की तरह..रुकना नहीं..गढ्ढों में जमना नहीं..लिखते जाना है..ज़िंदगी के बाद भी ज़िंदगी को याद आना है..